‘शाह बेगम’ उर्फ़ ‘मन बाई’, शाह बेगम का मतलब है ‘द रॉयल लेडी’। इनका ये नाम शादी के बाद पहले पुत्र होने पर जहांगीर ने दिया था। मन बाई आमेर के राजा भगवंत दास की पुत्री और राजा बिहारीमल की पोत्री थी। एक और रोचक तथ्य ये भी है कि राजा बिहारीमल की पुत्री ‘मरियम-उज़-ज़मानी’ की शादी ‘अकबर’ से सन् 1562 में हुई। ‘जहांगीर’ इन्ही दोनों का पुत्र था।

इसके पीछे का इतिहास:
जहांगीर और मन बाई दूर के रिश्ते में थे और इनकी सगाई तब ही हो गई थी जब सलीम (जहांगीर) करीब 15 बरस का था। ये ग्रैंड शादी दो करोड़ टंक(सिक्कों) में पक्की हुई। अकबर ख़ुद अपने कई बड़े-बड़े मंत्रियों और अधिकारियों के साथ आमेर आए। 13 फरवरी, 1585 शादी का दिन चुना गया। शादी मुस्लिम क़ाज़ी द्वारा करवाई गई लेकिन हिन्दू रीती-रिवाज़ भी इसमें शामिल थे।

अगर बात दहेज़ की करे तो राजा भगवंत दास ने दहेज़ में 100 हाथी, कई सारे घोड़े, सोने-चांदी के जवाहरात, बहुमूल्य पत्थर और बहुत सी अन्य चीज़े जिन्हें गिना भी न जा सके, दी। इस समारोह में शामिल होने आए अमीर-उमराओं पर्शियन, तुर्किश और अरबी घोड़ो पर सवार होकर आए थे। वहीं दुल्हन को कई दास-दासियों के साथ विदा किया गया। ये सभी दास और दासियाँ अलग-अलग देशो के थी जिनमें कुछ भारतीय थे तो कुछ अबेसिनीयन और सिरकासियन भी थे। रास्ते में बादशाह ने खूब दौलत उड़ाई और बेफिक्र होते हुए खूबसारा सोना-चांदी बांटते चले गए।

सलीम और मन बाई को पहली संतान एक बेटी रूप में सन् 1586 में मिली जिसका नाम ‘सुल्तान-उन-निस्सा बेगम’ रखा गया। इतिहास में सुल्तान-उन-निस्सा बेगम का ज़िक्र ज़्यादा नहीं है। इन दोनों की दूसरी संतान के रूप में एक लड़का हुआ जिसका नाम ‘खुसरौ मिर्ज़ा’ रखा गया। खुसरौ मिर्ज़ा का जन्म 6 अगस्त, 1587 को हुआ और इसी दिन मन बाई को एक नए नाम की उपाधि दी गई ‘शाह बेगम’। मन बाई अब शाह बेगम बन चुकी थी।

इतिहास में शाह बेगम को बेहद ख़ूबसूरत बताया गया है। शाह बेगम बहुत ही शांत प्रवत्ति की थी इस वजह से बादशाह के दिल में उनके लिए एक खास जगह थी। लेकिन वो तंत्रिका तंत्र(न्युरोटिक) से सम्बंधित रोग से ग्रसित भी थी। जिस वजह से वो कल्पित अपमान को भी अपने पर ले लेती थी। इससे उन राजपूत राजकुमारियों के लिए सुनहरा अवसर बन गया जो मुग़ल साम्राज्य में अपना परिवार बसाना चाहती थी।
इनयातुल्लाह लिखते है कि “बेगम हरम में मौजूद अन्य साथियों से हमेशा अलग दिखना और ऊपर रहना चाहती थी। उनकी इस आदत की वजह से कई बार वह हिंसक भी हो जाती थी।”
जहांगीर भी लिखते है,”बेगम दिमाग़ी तौर बहुत अस्थिर थी और इस बात का पता मुझे समय-समय पर उनके वालिद साहब और भाइयों से पता चलता रहता था।”
शाह बेगम खुसरौ से हमेशा अपने पिता के प्रति वफ़ादार रहने को बोलती थी। जब उन्हें लगा की बात हाथ से फिसल चुकी है तो उन्होंने खुद की जान लेने का निश्चय कर लिया था।

शाह बेगम की मौत:
शाह बेगम की मृत्यु 16 मई, 1604 को हुई। विचलित दिमाग़ी हालत से सँभलने की नाक़ाम कोशिशें और अत्यधिक मात्र में अफ़ीम लेने की वजह से वह 16 मई, 1604 को दुनिया से रुखसत हो गई। वह खुसरौ और उसके भाई की जहांगीर के प्रति बर्ताव से काफी दुखी रहती थी।

शाह बेगम का मकबरा ‘खुसरौ बाग, इलाहाबाद’ में है। इलाहाबाद कोर्ट(मुग़ल सल्तनत के समय) ने ‘अका रेज़ा’ नामक कलाकर को शाह बेगम का मक़बरा तैयार करवाने का आदेश दिया। अंततः 1606-07 में मक़बरा बनकर तैयार हो गया।